— शकील अख्तर
वैसे तो लोकतंत्र बचाने की जिम्मेदारी सत्ता की है। सरकार के पास ही सब साधन होते है कि वह लोकतंत्र मजबूत करे या उसे जैसा आज खतरे में दिख रहा है वैसा पतन के मुहाने तक ले जाएं। मगर इस बार वक्त ने जिसके लिए कहा जाता है 'समय बड़ा बलवान ने विपक्ष को मौका दिया है और जिम्मेदारी भी कि वह भारत के लोकतंत्र को बचाने के लिए ऐलान कर दे कि अब इस अविश्वसनीय हो गए चुनाव आयोग के नियंत्रण में चुनाव नहीं हो सकते। पूरी तरह अस्वीकार्य।
इस चुनाव आयोग का कभी नाम था। आज बदनाम है। कई देश अपने यहां निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव करवाने के लिए इससे निवेदन करते थे। नेहरू ने 1950 में चुनाव आयोग का गठन किया था। और उसके तत्काल बाद सूडान ने अपने यहां चुनाव करवाने के लिए नेहरू की सहायता मांगी थी। भारतीय चुनाव आयोग वहां गया और निष्पक्ष एवं स्वतंत्र चुनाव करवा कर पूरी दुनिया में भारत की चुनाव प्रणाली का डंका पीट दिया। विश्व गुरु ऐसे होते थे।
इन्दिरा गांधी द्वारा बांग्ला देश बनाने के बाद वहां के चुनावों में भारतीय चुनाव आयोग ने पर्यवेक्षक की भूमिका अदा की। अरब देशों सहित कई देशों की चुनाव प्रणाली में सुधार के लिए भारतीय चुनाव आयोग को बुलाया जाता रहा है।
मगर अब यह सब दादी नानी की कहानियां हैं। बेटा एक समय था जब हमारे देश का इतना नाम हुआ करता था! आज की हकीकत यह है कि भारतीय चुनाव आयोग में केवल एक सदस्य रह गया है। एक अनूप पांडे पिछले महीने रिटायर हो गए थे। उनकी जगह भरी नहीं गई। और एक अरुण गोयल ने अभी इस्तीफा दे दिया। बचे अकेले मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार हैं। एक सदस्यीय चुनाव आयोग।
यही समय है विपक्ष को जोरदार आवाज उठाना चाहिए कि इन एक बचे साहब को भी राहुल के बयानों में किस किस का नाम आया है किस का नहीं गिनने में लगाओ और चुनाव सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में करवाओ।
और खबरदार किसी बाहर के आब्जर्रवर को घुसने मत देना। भारत ने नाम कमाया है विदेशों में जाकर चुनाव करवाने में, अपने यहां वह स्थिति नहीं होने देना कि अमेरिका युरोप इंग्लैंड जो पिछले कुछ समय से हमें लोकतंत्र पर उपदेश देने लगे थे अब हस्तक्षेप भी करने लगें।
वैसे तो लोकतंत्र बचाने की जिम्मेदारी सत्ता की है। सरकार के पास ही सब साधन होते है कि वह लोकतंत्र मजबूत करे या उसे जैसा आज खतरे में दिख रहा है वैसा पतन के मुहाने तक ले जाएं। मगर इस बार वक्त ने जिसके लिए कहा जाता है 'समय बड़ा बलवान ने विपक्ष को मौका दिया है और जिम्मेदारी भी कि वह भारत के लोकतंत्र को बचाने के लिए ऐलान कर दे कि अब इस अविश्वसनीय हो गए चुनाव आयोग के नियंत्रण में चुनाव नहीं हो सकते। पूरी तरह अस्वीकार्य।
सुप्रीम कोर्ट व्यवस्था बनाए। अपनी निगरानी में चुनाव करवाए। बेलेट पेपर से हों। किसी बाहर के आब्जर्वर को सोचने कहने की भी जरूरत न पड़े इतना फुल प्रूफ इंतजाम सुप्रीम कोर्ट करवाए।
हमारे चुनावों पर तो कभी किसी ने शक किया ही नहीं। 1975 की इमरजेन्सी के बाद इन्दिरा गांधी चाहतीं तो 77 के चुनाव चाहे जैसे करवा सकती थीं। मगर पूरी तरह निष्पक्ष और स्वतंत्र करवाए। और उसके बाद उतनी ही शांति से सत्ता हस्तांतरण किया। अभी अमेरिका में देखा दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र वहां हारने के बाद डोनाल्ड ट्रंप ने किस तरह सत्ता छोड़ने से इनकार कर दिया था। वहां भी भक्त होते हैं। वे वहां की संसद में घुस गए थे। इसलिए वहां अभी के राष्ट्रपति बाइडन ने कहा कि लोकतंत्र खतरे में है। पूरी दुनिया में और अमेरिका में भी।
मगर भारत में उसे बचाने का एक मौका विपक्ष के पास है। अमेरिका में तो जनता इतनी जागरूक है कि वह वहां किसी भी आधुनिक मूल्य को जिनमें लोकतंत्र सर्वोपरि है कमजोर नहीं होने देगी। मगर हमारे यहां की जनता जल्दी डर जाती है। उसका भय और साहस इस पर निर्भर करता है कि कौन सा पक्ष ज्यादा ताकतवर है। अगर डराने वाला है तो वह डर जाती है। हिम्मत दिलाने वाला है तो उठ खड़ी होती है। इसलिए राहुल को इतनी ज्यादा मेहनत करना पड़ रही है। डर के खिलाफ राहुल बहुत दिनों से अभियान चला रहे हैं। मगर हमारे यहां डर की जड़ें भी बहुत गहरी हैं। प्रधानमंत्री मोदी इसी का उपयोग कर रहे हैं। और एक काल्पनिक डर दिखाकर धु्रवीकरण करते रहते हैं। इसलिए अमेरिका और युरोप की तरह हमारी जनता खुद लोकतंत्र को बचाने के लिए पहल नहीं करेगी। यह काम विपक्ष को ही करना होगा।
और समय ने उसे मौका दे दिया। चुनाव से ठीक पहले नई नियुक्तियां निष्पक्ष नहीं हो सकतीं। इसलिए नई नियुक्तियों का सवाल ही नहीं। चुनाव आयोग में पूरा प्रशासन तंत्र है। बस उसका संचालन सुप्रीम कोर्ट से होना चाहिए।
विपक्ष को अड़ जाना चाहिए। राजनीति में जो भी मौके का सही उपयोग नहीं करता उसे फिर कोई नहीं पूछता है। राजनीति में मौके बार बार नहीं मिलते। यह अवसर खुद समय ने दिया है। शायद कुछ चाहता है। देश का, जनता का भला। विपक्ष एक माध्यम है। उसे यह समझना होगा कि अभी नहीं तो कभी नहीं। नियम कानून, संविधान सब उसके पक्ष में हैं। मगर उन्हें इन्टरप्रेट (व्याख्या) करना होगा।
जोरदार ढंग से एकजुट होकर आवाज उठाना होगा। सुप्रीम कोर्ट स्वत: संज्ञान ले। किसी को कोर्ट में जाने की जरूरत नहीं है। नहीं तो वहां से तो बहुत दिनों से यह तरीका चल रहा है कि जनहित, देशहित, लोकतंत्रहित की ऐसी ही किसी याचिका के जाते ही उसे निरस्त करके खबर बना दी जाती है कि कोर्ट ने ठुकराया। विपक्ष को चोट।
सुप्रीम कोर्ट स्वत: संज्ञान ले। देश के लोकतंत्र की उसे भी कुछ चिंता होना चाहिए। उसी लोकतंत्र और संविधान से यह न्यायपालिका बची है। नहीं तो जैसे आरोप लगना शुरू हो गए हैं कि उसके पास लिख कर फैसले पहुंचने लगे हैं। वह फिर सबको दिखने भी लगेंगे।
देश में अगर न्याय नहीं है तो फिर कुछ नहीं है। राहुल की न्याय यात्रा का नाम और उद्देश्य यही है। सबसे जरूरी बात। राजतंत्र से लेकर और उससे पहले कबीलों में भी इंसाफ हमेशा रहा है। या उसकी आवाज रही है। वह एक सबसे पुराना शासन का मूल्य है। जिसकी अवहेलना कभी कोई निरकुंश ताकत भी नहीं कर सकी है। जनता सब सह लेती है एक न्याय की उम्मीद में। और अगर वही खत्म हो जाती है तो फिर जनता नहीं सह पाती।
सुप्रीम कोर्ट यह सब जानता है। हम पत्रकारों से बहुत ज्यादा जानता है। मगर जैसा कहा कि डर व्यक्ति, संस्थाओं की सारी खुबियों को हर लेता है। डरा हुआ व्यक्ति कितना ही गुणवान हो किसी काम का नहीं होता। इसलिए राहुल का सबसे बड़ा नारा है - 'डरो मत!'
खबरें दब नहीं सकतीं। गोयल की खबर भी आ रही है। जल्दी पूरी खबर आ जाएगी। उनसे पहले ही ऐसे ही एक और चुनाव आयुक्त अशोक लवासा इस्तीफा दे चुके हैं। दरअसल चुनाव आयोग जिस हद तक गिरने को तैयार है उतना सब अधिकारी नहीं गिर सकते। बहुत सीनियर आईएएस अधिकारी होते हैं। अपने पूरे कैरियर में नाम कमाने वाले। किसी गलत बात का पार्ट बनकर अपना नाम खराब करना कोई नहीं चाहता है। हर आदमी को डर या लालच से काबू में नहीं किया जा सकता है। हर क्षेत्र में कुछ लोग हमेशा होते हैं जो गलत बात से समझौता नहीं कर पाते। चुनाव आयोग आज निष्प्राण, निष्प्रभावी हो गया है। वह निष्पक्ष चुनाव नहीं करा सकता। गेंद अब विपक्ष के पाले में है। देखना है वह इसका कैसे उपयोग करता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)